Gahmar Kamakhya Mandir: गहमर की ‘माँ’ कामाख्या’, जानें मिथक और यथार्थ

संजय कृष्णः जमानियाँ तहसील के ऐतिहासिक गाँव ‘गहमर’ से पश्चिम माँ कामाख्या का (Gahmar Kamakhya Mandir) विशाल, भव्य व नयनाभिराम मंदिर अपने गर्भ में कई रहस्यों को छिपाये हुए आज भी लोगों के लिए कौतूहल और जिज्ञासा का सबब बना हुआ है। वस्तुतः माँ कामाख्या का पवित्र पुरातन धाम आज पूर्वांचल का सबसे बड़ा धार्मिक शक्ति पीठ होने के गौरव से विभूषित है। वर्ष के दोनों नवरात्रों-चैत्र एवं शारदीय- में देवी के दर्शनार्थ आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उनकी आस्था व विश्वास को ही रेखांकित करती है ।

Gahmar Kamakhya Mandir

माँ कामाख्या के संदर्भ में कई मिथक कथाएँ व अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं

माँ कामाख्या के संदर्भ में कई मिथक कथाएँ व अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। प्रायः यह धारणा बद्धमूल है कि यह सीकरवार वंश की कुलपूज्या हैं। कभी सीकरवार वंश की राजधानी फतेहपुर सीकरी हुआ करती थी। सीकरी शब्द पहले स्थान बोधक था कालान्तर में इसने वंशवाचक संज्ञा का रूप धारण कर लिया। कर्नल टाड ने भी सीकरवाल नामक राजपूती वंश के मूलोद्गम का वर्णन करते हुए लिखा है कि “उनका नाम सीकरी नामक नगरी की संज्ञा से पड़ा है जो पहले एक स्वतंत्र रियासत थी।”

वस्तुतः सीकरी शब्द संस्कृत से निकला है। इसकी व्युत्पत्ति ‘सिकता’ से मानी जाती है, जिसका अर्थ रेत या रेतीली जमीन होता है। ‘सीकर’ से ही सीकरी की उत्पत्ति मानी जाती है। ‘फतेह’ फारसी का शब्द है, जिसका आशय ‘विजित’ से लिया जाता है। ‘पुर’ नगर का पर्याय है। दरअसल, मध्यकाल में फारसी, उर्दू के साथ हिन्दी के शब्दों को संयुक्त कर नामकरण की एक सार्थक परम्परा रही है। यह हिन्दू-मुस्लिम की संबंध-संस्कृति को भी एक सीमा तक प्रकट करता है ।

Ghazipur Kamakhya temple history

बाबर ने जब सीकरवारों को पराजित कर इस क्षेत्र को अपने आधिपत्य में ले लिया, तब यह ‘फतेहपुर सीकरी’ कहा जाने लगा। कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि इस नगर को अकबर ने बसाया था, जबकि, इस्लामी आक्रमण से पूर्व सैकड़ों वर्ष वह सीकरवारों की राजधानी रही है। पी. एन. ओक इसका प्राचीन नाम ‘विजयपुर सीकरी’ बताते हैं। उनकी धारणा है कि मुसलमानों के कब्जे के पश्चात उसी नाम का आधा-अधूरा इस्लामी अनुवाद फतेहपुर सीकरी बना दिया गया । सर्वविदित है कि ओक उग्र हिन्दूवादी इतिहासकार माने जाते हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम सीकरी की प्राचीनता को इतिहास के पटल पर उपस्थित किया परन्तु दुर्भाग्यवश किसी ने इस पर विशेष ध्यान देना उचित नहीं समझा। लेकिन हम सत्य को कितने दिनों तक अपनी आँखों से दूर रख सकते हैं या झुठला सकते हैं।

इतिहास किसी विचार धारा की नहीं अनवरत अनुसंधान और तर्कपूर्ण दृष्टि की अपेक्षा करता है। पिछले दिनों जब सीकरी की खुदाई हुई तो एक नया सच उजागर हुआ। और यह ‘सच’ ओक के निष्कर्षों को ही मजबूती प्रदान करता है। उत्खनन से प्राप्त मूर्ति-शिल्पों, पट्टिका, खिलौनों और बर्तनों के टुकड़ों ने यह प्रमाणित किया कि यहाँ की सभ्यता अकबर से कहीं ज्यादा प्राीन है। ११ वीं शताब्दी की मिली वाग्देवी की अद्भुत प्रतिमा, जैन तीर्थंकरों की मस्तक विहीन मूर्तियाँ अपनी प्राचीनता के अकाट्य तर्क प्रस्तुत करती हैं। पुरातत्व-वेत्ता मानते हैं कि यहाँ प्राचीन काल में अत्यन्त समृद्ध सभ्यता रही होगी। जैन तीर्थंकरों और हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का साथ-साथ मिलना, दोनों धर्मों के आपसी सद्भाव को ही व्यक्त करता है। इन मूर्तियों को कब, किसने खंडित किया, यह अभी तक अज्ञात है।

आइये सीकरी से सकरागढ़ चलें 

बाबर द्वारा पराजित होने के बाद सीकरवार राजपूतों ने भिण्ड, मुरैना तथा चम्बल की घाटियों में शरण पायी। कुछ समूह आगरे में ही रह गये। कुछ ने गोरखपुर, बलिया आदि क्षेत्रों में अपना निवास बनाया। कुछ ने गाजीपुर जिले के गहमर के समीप ‘सकरागढ़’ को जीतकर अपनी गढ़ी बनायी। इसी सकरागढ़ स्थान पर माँ कामाख्या का विशाल मन्दिर स्थापित है।

सकरागढ़ और उसके आस-पास चेरो-खरवारों, भर-सुइरी आदि जनजातियाँ रहती थीं। भरों की राजधानी भदोही थी। इन जातियों का सामाजिक संगठन वंश के वीर नायकों के प्रभुत्व में चलता था, और सुरक्षा के लिए छोटा-मोटा किला बनाकर रहते थे। ये स्वतंत्र राज्यों की तरह रहते थे। किसी दूसरे की अधीनता जल्दी स्वीकार नहीं करते थे। गाजीपुर जिले में फैले इनके मिट्टी के बड़े-बड़े टीले इनकी उपस्थिति के प्रमाण हैं। आज ये जातियाँ या तो विलीन हो गयी हैं या फिर हिन्दू जाति में शामिल होकर अपना अस्तित्व खो चुकी हैं।

वैसे 1865 तक इनके होने का प्रमाण मिलता है। उस समय इनकी संख्या 56,543 थी जिसमें बहुतों के पास अपनी जमीन भी थी। सीकरवारों का एक दल जब इस अंचल में आया तो उसका सामना मध्य काल की इस प्रभावशाली जाति चेरू राजा से हुआ। ये जातियाँ लड़ाकू तो थीं लेकिन उनमें सुसम्बद्धता तथा अनुशासन का घोर अभाव था। फलतः ये जातियाँ शीघ्र ही पराजित होकर सीकरवारों के अधीन रहने को विवश हो गयीं। मध्य काल में अचानक उभरा इनका प्रभुत्व कुछ शताब्दियों के भीतर ही समाप्त हो गया ।

सीकरवारों की कुल देवी हैं कामाख्या?

सीकरवारों की यह प्रबल धारणा है कि कामाख्या उनकी कुल देवी हैं। उनमें यह विश्वास प्रचलित है कि पूर्व काल में सीकरवार वंश के के पितामह ने कामगिरि पहाड़ी (असम) पर जाकर कामरूप की लगातार कई वर्षों तक अहोरात्र अराधना की, जिसके फलस्वरूप प्रसन्न होकर माँ भगवती ने सीकरवार वंश के साथ रहने का वर दिया था। उसी वरदान के फलस्वरूप महाराज धामदेव ने माँ कामाख्या की प्रेरणा से इस सकरागढ़ पर कामाख्या के मंदिर का निर्माण कराया। यह घटना १६ वीं शताब्दी के आसपास की है। यद्यपि सकरागढ़ के ऊँचे टीले की खुदाई से जो खंडित मूर्तियों के अवशेष मिले हैं वे 11-12 वीं शताब्दी के आसपास की बतायी जाती हैं। बलुआ पत्थर की ये मूर्तियाँ सम्भवतः यक्ष, किन्नरों, तथा क्षेत्रीय कुल देवताओं की लगती हैं। संभव है ये मूर्तियाँ चेरू राजाओं द्वारा निर्मित मंदिरों की हों। और बहुत सम्भव है कि माँ कामाख्या इन्हीं की कुल देवी रही हों! कारण कि ढढ़नी स्थित माँ चण्डी भी चेरों आदि जातियों की कुल देवी रही हैं, परन्तु आज यह बावन गाँव के भूमिहार ब्राह्मणों की कुल पूज्या हैं।

‘चण्डी’ भारतवर्ष की आदिम देवता हैं

कुबेरनाथ राय का मानना है कि ‘चण्डी’ भारतवर्ष की आदिम देवता हैं और यह शब्द ही प्रागआर्य अर्थात द्रविड़ या निषाद भाषा का है। यद्यपि, बंगाल में भी चण्डी की पूजा प्रचलित है। वहाँ वे स्थानीय देवियों के मध्य सर्वाधिक जटिल प्रकृति की देवी के रूप में उपस्थित हैं। लोगों की धारणा है कि बंगाल के विभिन्न भागों भिन्न-भिन्न स्थानीय दशाओं के कारण अलग-अलग समय के दौरान जिन अलग-अलग प्रकृति वाली देवियों की संकल्पना की गई थी, वे काल क्रम में आगे चलकर एक हो गयीं और उनका नाम चंडी पड़ा ।

Ghazipur Kamakhya Devi Mandir

बंगाल के आम लोगों में चंडी की स्थिति ऐसी ही रही। वहाँ चण्डी के कई रूप मिलते हैं जो विशेष रूप से महिलाओं द्वारा पूजित हैं। ये रूप हैं-नताई चण्डी, घोर चण्डी, उड़न चंण्डी, कुलुई चण्डी, शुभो चण्डी, खड़ाशुभो चण्डी, रघाई चण्डी, ककाई चण्डी, अवाक चण्डी, उधार चण्डी, ओलाई चण्डी, बसन चण्डी और मंगल चण्डी। इनमें से कई देवियों के भी कई-कई रूप प्रचलित हैं जो समय-समय पर पूजित-वंदित होती हैं। बहुत सम्भव है कि चण्डी या कामाख्या भी मूलतः जनजातियों की देवी रही हों, जो कालान्तर में हिन्दुओं द्वारा संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के तहत आत्मसात् कर ली गयीं । यानि और लिंग की पूजा आर्येतर संस्कृति का अविभाज्य अंग रही है।

जब संस्कृतिकरण की प्रक्रिया चली तो ये दोनों प्रतीक भी अनार्य जातियों के साथ आर्य संस्कृति में सादर सम्मिलित कर लिए गये। ‘कामाख्या’ भी मूलतः योनि की संज्ञा है। कुछ लोगों का अनुमान है कि कामाख्या ‘संस्कृत का शब्द है वस्तुतः संस्कृत के बहुत से शब्दों तथा देवताओं की बहुत-सी संज्ञाओं के मूल में अनार्य शब्द हैं। शायद कामाख्या भी एक ऐसा ही शब्द है जो संस्कृत का नहीं है।

कुबेर नाथ राय कामाख्या को मूलतः खासी जनजाति का मानते हैं। वे कहते हैं, खासी भाषा में एक शब्द है-“का-मेइका” अर्थात बड़ी दीदी । मातृसत्ता प्रधान परिवार में बड़ी दीदी ही सबकी संरक्षिता होती थी । परन्तु प्रो० माखन झा ने अपनी पुस्तक ‘मानव विज्ञान’ में इनके विपरीत तथ्य प्रस्तुत करते हुए बताया है कि मातृवंशीय परिवारों में मुख्य सदस्य स्त्री ही होती है। परन्तु खासी समुदाय में बड़ी पुत्री की बजाय सबसे छोटी ही परिवार की संरक्षिता और पुरोहित होती है। इस पुत्री को ‘कारवाद्धदु’ कहते हैं ।

इस संदर्भ में प्रसिद्ध असमिया भाषा वैज्ञानिक डा० वाणीकान्त काकती का ‘कामाख्या’ के संदर्भ के अध्ययन उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मदर गाड्स कामाख्या’ में कामाख्या पर नृतत्वशास्त्रीय ढंग से विचार किया है। प्रायः सभी नृतत्वशास्त्री मानते हैं कि आर्यों के आगमन से पूर्व (हालांकि यह अभी संदिग्ध ही है कि आर्य बाहर से आये थे) भारतीय सभ्यता की आदिम अवस्था में कबिलाई संस्कृति में लिंग एवं योनि की पूजा प्रचलित थी। बाद में जब आर्य-द्रविड़ सांस्कृतिक समन्वय चला तो वे आर्य संस्कृति में अन्तर्मुक्त हो गयी।

डा. काकती ने भाषा विज्ञान के आधार पर ‘कामा’ शब्द का संबंध आदिम आग्नेय योनि पूजा से लगाया है तथा यह तथ्य है कि यहाँ की जनजातियाँ गारो, खासी आदि में योनि पूजा का कोई रूप अवश्य कभी प्रचलित रहा होगा। डा० काकती देवी को मूलतः आग्नेय (आस्त्रिक) जाति का देवता मानते हैं, जिसका बाद में आर्यकरण या हिन्दूकरण कर दिया गया। ये आग्नेय परिवार की जातियाँ जो हिन्द चीन तक फैली हैं, अपने साथ ‘देवी’ और योनि पूजा को लाई थीं । वर्तमान खासी जनजातियाँ इसी आग्नेय भाषा की शाखायें हैं। महाभारत में इन्हें ‘अग्निवर्ण किरात’ कहा गया है।

आर्य संस्कृति या भारतीय संस्कृति में इनके अपूर्व योगदानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हिन्दू धर्म में प्रचलित अनेक रीति-रिवाजों, परम्पराओं, रस्मों पर आग्नेय जाति की अमिट छाप है। मिट्टी के बर्तन बनाने की कला, गणचिन्ह की धारणा, कुदाल व हल द्वारा खेती करना-आदि आस्त्रिकों से ही ग्रहण किये गये हैं । यहाँ तक कि चाँद की कलाओं से दिन गिनना यानी तिधियाँ और पूर्णिमा के और द्वितीया के चन्द्रमा को नाम देने वाले ‘राका और कूट आदि भी आस्त्रिकों की देन है। पान-खान हल्दी और सिन्दूर का उपयोग करना -ये सभी चीजें हमने आस्त्रिकों से ही सीखी हैं।

‘माँ’ कामाख्या’ मूलतः जनजातियों की ही प्रधान देवी रही हैं

भारतीय समाज पर आदिम निषाद आस्त्रिकों के गहरे और अमिट प्रभाव आज भी परिलक्षित होते हैं। निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि जिस तरह हमने उनकी अनेक परम्पराओं, रीति-रिवाजों को ग्रहण कर लिया उसी तरह उनकी कुल देवी को भी हमने हार्दिकता पूर्वक आत्मसात कर लिया। इस तरह जो प्रतिबिम्ब उभरता है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि ‘माँ’कामाख्या’ मूलतः जनजातियों की ही प्रधान देवी रही हैं। यह अलग बात है कि अब यह चौरासी (८४) गाँवों के सीकरवार राजपूतों की कुलपूज्या हैं। वस्तुतः भरतीय इतिहास के निर्माण मे मिथकों का यथेष्ट योगदान रहा है कामाख्या इतिहास से कहीं अधिक मिथक हैं इनकी मिथकीयता काल से परे है। आज वह केवल सीकरवारों की ही नहीं, पूरे पूर्वांचल की मातृशक्ति हैं । ऋषियों ने ‘मातृशक्ति’ के प्रति अपनी अपूर्व निष्ठा और श्रद्धा निवेदित करते हुए तीन सौ पैसठ दिन में अठारह दिन ‘मातृशक्ति’ की अभ्यर्थना के लिए सुरक्षित कर दिये हैं। संभव है, यह परम्परा भी प्राचीन काल के मातृप्रधान सत्ता की अवशेष हो और जो यह बताता है कि सृष्टि में माँ से बढ़कर और कोई दूसरी शक्ति नहीं है।

साभारः जमदग्नि वीथिका 2003

 

 

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