Hul Diwas 2025: हूल दिवस की भूमि पर लाठीचार्ज, लोकतंत्र बनाम सत्ता का दमन

Hul Diwas 2025: 30 जून 1855 को जब सिदो और कान्हू मुर्मू ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संथाल हूल क्रांति का बिगुल फूंका था, तब उनके संघर्ष का लक्ष्य था– शोषण, अन्याय और दमन के खिलाफ आवाज उठाना। आज, ठीक 169 साल बाद, उसी भूमि पर, भोगनाडीह गांव में आदिवासियों पर पुलिस लाठीचार्ज की घटना हमारे लोकतंत्र पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है।

इतिहास की जमीन पर वर्तमान की दरारें

हूल दिवस केवल एक सांस्कृतिक पर्व नहीं है, यह भारत की स्वतंत्रता के इतिहास का आदिवासी अध्याय है। यह वह दिन है जब हजारों आदिवासियों ने अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ हथियार उठाए थे। लेकिन इस वर्ष 30 जून को, जिस भूमि पर आदिवासी अस्मिता का जयघोष होना था, वहां आंसू गैस और डंडों की गूंज सुनाई दी। शहीदों के वंशजों और स्थानीय ग्रामीणों को अपने ही पूर्वजों की याद में आयोजित कार्यक्रम के लिए अनुमति नहीं दी गई, और जब वे अपने पंडाल हटाने के विरोध में खड़े हुए, तो पुलिसिया बर्बरता ने स्वतंत्रता की आत्मा को झकझोर दिया।

राज्य सत्ता की संवेदनहीनता

इस घटना पर भाजपा नेताओं, खासकर बाबूलाल मरांडी और निशिकांत दुबे की प्रतिक्रिया तीव्र और तीखी रही है। उन्होंने राज्य की हेमंत सोरेन सरकार पर आदिवासी विरोधी रवैये का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि यह लाठीचार्ज अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता की याद दिलाता है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार, जो आदिवासी अधिकारों की बात करती है, वही सरकार आदिवासियों की आवाज दबा रही है।

प्रशासनिक दमन या राजनीतिक असहिष्णुता?

इस प्रश्न का उत्तर तलाशना जरूरी है कि क्या यह केवल एक ‘कानून व्यवस्था’ का मुद्दा था या फिर राजनीतिक कार्यक्रमों पर नियंत्रण और वैकल्पिक स्वर को दबाने की कोशिश? हूल दिवस जैसे ऐतिहासिक और भावनात्मक आयोजन में सरकार और आदिवासी समाज के बीच समन्वय की आवश्यकता थी। लेकिन इसके बजाय, सत्ता की ओर से एकपक्षीय निर्णय और बल प्रयोग लोकतांत्रिक मर्यादा की अवहेलना प्रतीत होता है।

क्या लोकतंत्र सिर्फ चुनावी बहुमत है?

लोकतंत्र का सार केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि वह असहमति, विविधता और ऐतिहासिक चेतना का सम्मान करना भी है। यदि आज भी आदिवासी समुदाय को अपने पूर्वजों को याद करने के लिए संघर्ष करना पड़े, तो यह लोकतांत्रिक चेतना के लिए खतरे की घंटी है।

राजनीति बनाम विरासत

भोगनाडीह की घटना यह भी दिखाती है कि कैसे ऐतिहासिक विरासत राजनीतिक टकराव का मैदान बनती जा रही है। जिस भूमि ने 1855 में हूल क्रांति का नेतृत्व किया, वहां आज सत्ता और विपक्ष अपने-अपने विमर्श गढ़ रहे हैं, लेकिन बीच में आदिवासी समाज की मूल भावना और अस्मिता कहीं खोती जा रही है।

समाधान की राह

राज्य सरकार को चाहिए कि वह इस घटना की निष्पक्ष जांच कराए, दोषियों पर कार्रवाई हो और भविष्य में हूल दिवस जैसे आयोजनों के लिए स्थानीय समुदायों को सम्मान और सहयोग के साथ जोड़ा जाए। यह जरूरी है कि आदिवासी समाज को सत्ता की परछाईं में नहीं, बल्कि उसके केंद्र में रखा जाए।

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मयंक शेखर

मैं मीडिया इंडस्ट्री से पिछले 7 सालों से जुड़ा हूं। नेशनल, स्पोर्ट्स और सिनेमा में गहरी रूचि। गाने सुनना, घूमना और किताबें पढ़ने का शौक है।

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